Bhagavad Gita: Chapter 17, Verse 26-27

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते |
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते || 26||
यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते |
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते || 27||

सत्-भावे-शाश्वत सत्य और सत्त्वगुण की भावना के साथ; साधु-भावे-पवित्र भाव के साथ; च-भी; सत्-सत् शब्द; इति–इस प्रकार; एतत्-इस; प्रयुज्यते-प्रयुक्त किया जाता है; प्रशस्ते–पवित्रः कर्मणि-कर्मों में; तथा भी; सत्-शब्द-पवित्र अक्षर; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; युज्यते-प्रयोग किया जाता है; यज्ञे-यज्ञ में; तपसि-तपस्या में; दाने-दान में; च-भी; स्थिति:-दृढ़ता से स्थापित; सत्-पवित्र अक्षर सत्; इति–इस प्रकार; च-तथा; उच्यते-उच्चारण किया जाता है; कर्म-कार्य; एव-वास्तव में; तत्-अर्थीयम्-ऐसे उद्देश्य के लिए; सत्-पवित्र अक्षर सत्यः इति इस प्रकार; एव–वास्तव में; अभिधीयते-नाम दिया गया है।

Translation

BG 17.26-27: “सत् शब्द का अर्थ नित्यत्व और साधुत्व है। हे अर्जुन! इसका प्रयोग शुभ कर्मों को सम्पन्न करने समय किया जाता है। तप, यज्ञ तथा दान जैसे कार्यों को सम्पन्न करने में प्रयुक्त होने के कारण इसे 'सत्' शब्द द्वारा वर्णित किया जाता है। अतः ऐसे किसी भी उद्देश्य के लिए किए जाने वाले कार्य के लिए 'सत्' नाम दिया गया है।

Commentary

अब श्रीकृष्ण 'सत्' शब्द की महिमा का व्याख्यान कर रहे हैं। 'सत्' शब्द के कई अर्थ हैं तथा ऊपर के दो श्लोकों में इनमें से कुछ का उल्लेख किया गया है। सत् का प्रयोग शाश्वत साधुत्व और धर्म के अर्थ में किया जाता है। जो सदैव विद्यमान रहता है वह भी सत् है। श्रीमद्भागवतम् में कहा गया है-

सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये। 

सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः।।

(श्रीमद्भागवतम्-10.2.26) 

"हे भगवान! आप सत्य संकल्प हैं क्योंकि आप केवल परम सत्ता ही नहीं बल्कि ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्ति के तीन चरणों-सृजन, स्थिति और लय में भी सत्य स्वरूप हैं। तुम सबके मूल हैं, और इसका अंत भी हैं। आप सभी सत्यों का सार हैं और आप वे नेत्र भी हैं जिससे सत्य को देखा जा सकता है। इसलिए हम आपके 'सत्' अर्थात् परम सत्य के शरण गत हैं, कृपया हमारी रक्षा करें।"

Swami Mukundananda

17. श्रद्धा त्रय विभाग योग

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